मोहन थानवी री कवितावां

उत्तरा री पीड़
कन्या री पुकार
विराट री बेटी उत्तरा री पीड़
सुणीज री है इण कलजुग मायं
अर्जुन नै कांईं सूझ्यो हो !
आपणै वास्तै विराट री तरफ सूं मिलतै
उत्तरा रै हाथ नै
आपरै बेटे अभिमन्यु खातिर मांग लियो !
सिखा तो दिया अस्त्र-शस्त्र चलावणा
पण कांई कदैइ निसाने माथै चलावण दिया !
अरै म्हूं तो गूंगी बावळी बेटी मर्यादा में बंध्योड़ी
करतार बाबा थै क्यूं नाइंसाफ कर्यो !
ओह म्हारा भाग्य द्वापर री पीड़
कलजुग मायं भी बो इ सब सहन करनी पड़ैला !
कोख पुकारै सुणो कैय रैयी उत्तरा
जळम तो लेवण दियो, जीवण कोनी दियो आपरौ जीवन !
भू्रण हत्या सूं तो बचाय लियो पण...
म्हारी नीं सुणी.... करतार बाबा अर ससुर दोनां इ
आपणी मरजी आइ उण सूं ब्यावं दियो
एक मना करी तो दूजै दूल्हे माथै मंढ़ दियो !
***

आतंक रा सौ जळम
अरै दुर्योधन, अर्जुन रै किरोध रो नतीजो
जमानो देख चुक्यो
खुल्योड़ै बालां सूं द्रोपदी रै
किरसन ने समझौतो नीं करणै रौ संदेसो
महाभारत रै दरसाव नै भी
जमानो देख चुक्यो
दासी बेटी रौ भरोसो
विदुर नै देखा दियो
कुंभ-पूत अगस्त्य अ
घी रै माटे सूं पिंडरूप जळम्या कौरव
सगळा आपरी जगै माथै - अरै दुर्योधन
क्यूं आवै तूं भेस बदल-बदल
अरै आतंकी अबै और कितरा रूप और दिखावैला
सगळा तो - जमानो देख चुक्यो
***

पलायन
सिंझा री गैरी होवंती कळास
पहाड़ां हेठै ओढ़णी बण्योड़ी दिसै
जद हवा बाजै अर रूख रा पत्ता खड़कै
पंख री फड़फड़ाहट सुणीजै
कबूतरां सूं भर्योड़ी दीवाळ माथै दिसै बिल्ली
समझल्यो मामलौ खून सूं भरियोड़ो
चिड़ियाघर सूं बतख भाजै, लारै पड़्यो है भालू
चींटीनगरै कन्नै इ सहमयोड़ी दिसै चिड़कळ्यां
अरमानां रौ कतल हुयो
ईआं सात समन्दर पार गई बा
मिनखां, ठा लाग्यो ओ कांई हुयो !
उन्नै सूं इन्नै अ
इन्नै सूं उन्नै चली गई
संस्कृति .....
***

मोक्ष रौ लेखौ
सुणता लिख्योड़ौ जीआं
आंख्यां रै आगै
बणतो-बिगड़तौ विगत
आखरां नै ठैहरण इ कोनी देवै
कैवण वालां नै बो सरीर दया मांगतौ देखतौ
मन-मसोसतौ रह्यौ
जवानी री चौखट सूं निकळ्योड़ी
उण री जातरा रौ पड़ाव
मोक्षधाम मायं बि चालतौ देख्यौ
बो आगीनै आयो उण री ठौड़
अर
पलकां नै आंख्यां सूं चिपकाय पछै
एक उंडी सांस छोड़र
कांपता हाथ्यां मायं सरीर नै उठायो
अर चिता माथै सहेजतां सुला दियो
***

सूरज देख्यो समाज
सूरज देख्यो
सदियां सूं
समाज बीआं ई है
सूरज समझ लियो, मान लियो
राहु-केतु री छाया घेरसी ही
सूरज नै देख तारा
छिपता रह्या है
धूप तेज होवै तो बादल
घिरता रह्या हैं
दिन चढ़ण लागै तो
साया पैली छोटा
पछै लम्बूतरा होवै ही है
सूरज देखतो रह्यो
आखिरकार उणरौ तेज
कम होवण लाग्यो
दूर अंधरो माथौ उठावण लाग्यो
तारा फेरूं टिमटिम करता दिस्या
बादल बरसण लाग्या
पौधों नै नवजीवन मिल्यौ
दिन रै बाद रात
रात रै बाद दिन सुहावणौ लाग्यौ
सूरज हंस्यौ
उण सदियां सूं ईआं इज देख्यो है
तो फेर समाज क्यूं बदलीजै रा भला !
***

2 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग मार्फ़त पाठका ताई राजस्थानी कवितावा पहुचावन वास्ते मानवाला नीरज जी रो आभार !

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  2. बहुभाषी बहुगुणी मोहन थानवी जी री राजस्थानी रचनावां बांचण रौ मौको देवण खातर
    डॉ.नीरज दइया जी नैं मोकळा रंग अर हिय तळ सूं आभार !

    पांचूं कवितावां आछी अर कवि री भाषा पर सांतरी पकड़ दरसावती लखावै ।

    घणी घणी शुभकामनावां !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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