दोय गज़लां
(1)
घणीं अंधारी छै या रात, पण हुयौ काईं
बगण गई छै बणी बात, पण हुयौ काईं
छै चारू मे’र तरक्क्यां का खूब हंगामा
अठी छै दुख्यां की सौगात, पण हुयौ काईं
तसाया खेतां - खलाणां पे आग का औसाण
समन्दर पे छै बरसात, पण हुयौ काईं
जमारा ! थारा छलां की बिसात पे य्हां तो
हुई छै म्हां की सदा मात, पण हुयौ काईं
मटर ई ग्यौ छै वा अरमानां कौ हरयौ मांडौ
लुटी छै सपना की सौगात, पण हुयौ काईं
म्हानै ई मीच’र आख्यां ’यकीन’ वां पे करयौ
म्हं सूं ई वां नें करी घात, पण हुयौ काईं
***
(2)
न्है तू ही सुधरयौ न्हं म्हूं अ’र यो सारौ बीत बी ग्यौ
जमाना ! थारी फ़कर में जमारौ बीत बी ग्यौ
कठी बी झांक ल्यो काळौ ई काळौ आवै नजर
कठी बी सुण ल्यौ यो रोळो, अंधारौ बीत बी ग्यौ
तसाया पंछी कळ्पता फ़रै छै जंगल मांय
बंध्यां छै ढोर खणौटा पे, चारौ बीत बी ग्यौ
न्हं फ़र मुळकती, मिरग - सी उछळती खेतां में
यो जाण ल्यै कै लडकपन तो थारौ बीत बी ग्यौ
कस्यां बणाऊं खळकणौ, मनाऊं टाबर नें
अठी तो सडकां छै डामर की, गारौ बीत बी ग्यौ
घणा सह्या छै जुलम, अब तो उठ रे साथिडा
बता दयां वां नें, सबर थारौ- म्हारौ बीत बी ग्यौ
’यकीन’ जागती राखौ या जोत साहित की
मिनखपणों तो चुक्यौ, भाईचरौ बीत बी ग्यौ
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नीरज जी! घणों आभार जै उस्ताद की दोई गज़लां नै ब्लोग प’ ठौर दी। अ’र देख्यौ जावै तो ’यकीन’ की राजस्थानी गज़लां वां’कीं उर्दू अ’र हिन्दी गज़लां सूं कस्यां भी रूप में कम कोई न’।
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