अजय परलीका री कवितावां

मून
रात रै अँधारै मांय
जुगनू दांईं
रैयो रोवंतो
गिलो हुयग्यो
चादरै रो कुलो
थारी बातां सुण
म्हैं रैग्यो मून
जीभ कटियोडै दाईं !
***

बाळपणो
बाळपणै में
माटी में खेलता
कदै टिब्बा पर भाजता
कूरां खेलता
किंकर री डाली पर
दादो जूती ले'
लारै भाजता
कोई ठौड ठिकाणो
नीं हो
जदी तो
बाळपणो
पाछो कोनीं आवै ।
***

बाई
म्हारै
जनम सूं
पैली ही
म्हारी बाई
के ठा
कठै गई बा
जे
आज होवती बाई
तो
म्हे
करता किलोल
बाई थारै सागै
खेलता
कूदता
भाजता
थारै सागै
जे होवती
आज थूं
तो
तेरो ब्यांव करता
अर
म्हे
रोवंता
थारै जाणै पर
पण
होणी नै
कुण टाळै बाई
आज
थारी ओळूं मांय
आंख्यां सूं
चालै
आंसुवां
रा बाळा
एकर तो
भगवान कनै सूं
पाछी आज्या
बतलावां
भाई बैन
मिलर करां कीं मनां री
आज्या नीं
एकर तो ।
***

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