गजादान चारण री कवितावां

टकै-टकै मत बेच बावळा          
लख चौरासी भटक बितायां
मिनख जूण रो मोको आवै।
करम देख करतार पूरबला
करमां सारू काज भुळावै।।
कर करणी भूंडी या सखरी
बही लिखीजै बंदा थारी।
टकै-टकै मत बेच बावळा,
आ जिंदगाणी लाख टकां री।। 01।।

(हमारी परंपरागत मान्यताओं के अनुसार जीवात्मा को मोक्ष प्राप्ति से पूर्व इस सांसारिक आवागमन के चक्कर में चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। इसी भटकन के दौरान कहीं मानव योनी नसीब हो पाती है। सृष्टिसर्जक हमारे पूर्वकर्मों के आधार पर इस जीवन में हमें कार्य सौंपते हैं। चूंकि मानव जीवन में आप स्वतंत्र होकर अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं अतः अच्छी या बुरी जो चाहें वैसी करणी करने के लिए आप मुक्त हैं लेकिन ईश्वर के यहां आपकी कर्म-बही सतत रूप से लिखी जा रही है, उसका ध्यान रखकर ही आचरण करना चाहिए। अपनी जिंदगानी को तुच्छ स्वार्थों के लिए दागदार मत कर। हे भले मानुष! अपनी लाखों की मानी जाने वाली अमूल्य जिंदगानी को क्षणिक स्वार्थ के एक-एक टके में मत बेच।)
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आयो हो अठ् भाव बढावण
अर तूं विष रा बीज उगावै।       
जात , धरम अर सम्प्रदाय रा,
खाडा खोदै,राड करावै।।
पण तूं सुणलै काठ उनाड़ी,
नहीं पकैली खिचड़ी थारी।
टकै-टकै मत बेच बावळा,
आ जिंदगाणी लाख टकां री।। 02।।

(हे मानव! तू इस संसार में सद्भाव बढ़ाने के उद्देश्य से आया है लेकिन अपने उस सद्कृत्य के संकल्प को त्यागकर तू तो यहां विषबीज बोने में लग गया। पारस्परिक मैत्री तथा सौहार्द्र की बजाय तू जाति, धर्म तथा संप्रदाय के नाम पर रोज नये-नये खड्डे खोदकर लोगों को उकसाने तथा दंगा-फसाद कराने में लगा हुआ है। लेकिन सावधान ! हे मानव कान खोलकर सुनले, तुम्हारी यह काठ की हांड़ी इतनी दीर्घजीवी नहीं है कि इस में तू अपनी खिचड़ी पका सके। खिचड़ी पकने से पहले ही यह काठ की हांड़ी जल कर स्वयं राख हो जानी है। ऐसी गंदी करनी करने वाले लोगों की दशा बहुत खराब होती है अतः हे भले मानुष! अपनी लाखों की मानी जाने वाली अमूल्य जिंदगानी को क्षणिक स्वार्थ के एक-एक टके में मत बेच।)
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आफत जिम औरत नै मानै
अर उण सूं इज्जत री आशा।
पर नार्यां हित मीठी, धीमी,
घर नारी हित कड़वी भासा।।
पण वा धीर-धरम री धारक
आफत औढ़ै सगळी थारी।
टकै-टकै मत बेच बावळा,
आ जिंदगाणी लाख टकां री।। 03।।

(हे पुरुष ! तू भी अजीब है, जिस औरत को तू आफत के समान मानकर उसके साथ तदनुरूप व्यवहार करता है, उसी से अपने लिए इज्जत की आश रखता है। तुम्हारा व्यवहार बड़ा विचित्र है क्योंकि तू पराई स्त्रियों के लिए बहुत मीठी तथा धीमी बोली बोलते हो लेकिन घरवाली तथा अपने घर की अन्य औरतों के लिए बड़ी कटुभाषा का प्रयोग करते हो। इसके बावजूद भी तुम्हारी घरवाली कभी अपने कर्त्तव्य को नहीं भूलती, वह तो धैर्य तथा धर्म को धारण करते हुए तुम्हारी सारी बलाओं को खुदोखुद ओढ़ने में लगी रहती है अर्थात वह सुख-दुख सबमें पूर्ण मनोयोग से तुम्हारे साथ है। अतः हे भले मानुष ! अपनी लाखों की मानी जाने वाली अमूल्य जिंदगानी को क्षणिक स्वार्थ के एक-एक टके में मत बेच।)
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श्रद्धा रूप सदा स्वीकारी
पण कद आप बरोबर जाणी।
युग रो दरद खुदोखुद ओढ्यो
खुद रै दरद रही अणजाणी।।
माण जोग इण नार जात रो
क्यों अपमान करण री धारी।
टकै-टकै मत बेच बावळा,
आ जिंदगाणी लाख टकां री।। 04।।

( पुरुष ! औरत के प्रति तुम्हारी सोच ठीक नहीं है। इस संबंध में या तो तुमने औरत को देवी समझ कर श्रद्धा का पात्र समझा या फिर पददलिता की तरह पांव की जूती समझा। तुमने औरत को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया। नारी हमेशा पुरुष की अर्द्धांगिनी बनकर रहना चाहती है। न उससे बड़ी और न ही उससे छोटी। उसे पुरुष की श्रद्धा तथा उपेक्षा दोनों ही नहीं चाहिए, वह तो सम्मान करती है तथा सम्मान ही चाहती है। इसीलिए वह पूरे संसार के दुखदर्द को स्वयंमेव धारण कर लेती है तथा उससे लड़ने को तैयार हो जाती है। लेकिन उसका समर्पण देखिए, इस दौरान वह अपने सभी दुखदर्द से अनजान बनी रहती है। मां, पत्नी, बहिन या बेटी कभी भी पुरुष के दुख के समय अपने दुख को बताकर उसे और दुखी नहीं करती बल्कि अपने दुखदर्द से अनजान ही बनी रहती है। ऐसी समर्पण तथा त्याग की प्रतिमूर्ति स्वरूपा नारी जाति तो निश्चित ही सम्मान की अधिकारिणी है लेकिन तुमने तो उसका अपमान करने की ठान रखी है। अतः हे भले मानुष ! गहन चिंतन करते हुए विचार कर अपनी लाखों की मानी जाने वाली अमूल्य जिंदगानी को क्षणिक स्वार्थ के एक-एक टके में मत बेच।)
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घर आतां कर कोड घणैरा
मोत्यां थाळ बधारै।
बार-बार बलिहारी जावां
बेटी कह स्वीकारै।।
देख दायजो भड़क भूत ह्वै
प्यारी लागण लागै खारी।
टकै-टकै मत बेच बावळा,
आ जिंदगाणी लाख टकां री।। 05।।

(आर्थिक आपाधापी के महास्वार्थी युग में हे मानव ! तुम्हारी कथनी और करनी के बीच बहुत फर्क आ गया है। जिस लड़की को पुत्रवधू के रूप में बेटे के साथ शादी करके घर लाते हैं। घर आते ही उसके खूब लाड-कोड करते हैं तथा मोतियों के थाल लेकर उसका स्वागत करते हैं। लोगों के सामने बार-बार उसे बहू की बजाय बेटी ही कहकर स्वीकार करते हो तथा उसकी सारी बलाओं को लेने का दिखावा करते हो। लेकिन जैसे ही दहेज का सामान देखते हो, तुम्हारी सारी उदात्ता खत्म हो जाती है तथा ज्यादा दहेज पाने की चाहत में तुम भड़क कर असूरों जैसा व्यवहार करने लगते हो। मात्र दहेज के सामान के कारण अत्यंत प्रिय लगने वाली बहू विष की तरह कटु लगने लगती है। कितनी घटिया बात है अतः हे भले मानुष ! गहन चिंतन करते हुए विचार कर अपनी लाखों की मानी जाने वाली अमूल्य जिंदगानी को क्षणिक स्वार्थ के एक-एक टके में मत बेच।)

1 टिप्पणी:

  1. नमस्कार !
    नव वर्ष कि आप को बधाई ,
    कविता reसागे उथ्लो आछो लाग्यो चारण जी ने आभार
    सादर

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