रामस्वरूप किसान री कवितावां

एकलियो बळद
जेठ रौ
तपतौ दिन

तंदूर ज्यूं
सिलगती साळ

सूती पड़ी है थूं
नींद में अलोर
म्हारै पसवाड़ै
मांची ढाळ

म्हैं लिखतौ-लिखतौ
थारै कानी जोवूं -
माथै सूं
पसेव री लकीर
कनपटी रै गेलै
छाती कानी
होयी है व्हीर

सारस सरीखी
लाम्बी नस पर
नाड़ी फड़कै

सांसा रो अरहट चालै
गड़कै-गड़कै
इणी बीच
कदे-कदे थूं उरणावै।
स्यात कोई
सपनौ संतावै
जिण मांय
गड़तौ होसी
घिरस्त री गाडी रौ जूवौ
थारी खांदी

क्यूंकै थूं
एकलियो बळद
म्हारी आनन्दी
बळद तो
म्हैं ई हूं
बेकार बळद
जकौ जागतै थकै ई
करै कविता
अर थूं
नीनां में ई
खींचै गाड़ी।
***

आ बैठ बात करां
आ बैठ/बात करां
एक-दूजै ने देखां

कित्ता बरस बीतग्या
सागै रैंवतै थकां,
कित्ता नेड़ै-नड़ै रैया आपां

पण देख नीं सक्या-एक दूजै नै

झूठ नीं बोलूं
म्हैं तो नीं देख सक्यौ
थारी थूं जाणै

बरत्यौ अवस है
थारौ रूं-रूं
पण देख नीं सक्यौ
ठोड़ी रौ तिल/जकै रौ रंग
म्हारी अणदेखी रै अंधारै रळग्यौ

माफ करज्यौ
औसाण ईं नीं मिल्यौ
ए दांत कद टूटग्या थारा !
अर ए धोळा बाल ?
आ बैठ, गौर सूं देखूं थनै
कदे भाजौ-भाज में
आ जिनगाणी भाज नीं जावै।
***

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