रामदयाल मेहरा री कवितावां


मनख घणा छै
आता जाता मनख घणा छै।
मनख पणा में कै क जणा छै।

सबने ही थू नाच नचावे,
थारे हाथा खेलखणा छै।

थू म्हूं अर वे बीती बातां,
यादां में बस दोय जणा छै।

बढ़ चढ़ के जे बातां करता ,
भीतर सूं सब सूल्या चणा छै।

फोरा फोरा दीखण वाळा,
ज्ञानी थांसू कई मणा छै।

रामदयाल जी कवि छोटा सा,
और भी छोटा कई जणा छै।
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धुन धन की
देखी अजब निराळी धुन धन  की।
इणने पाबा खातिर मनख्यो भूल्यो रे लगन भजन की ।।

ऊमर सूं पहल्यां बुढ़ियायो चाह बड़ी खनखन की ।
एक ही आस रही जीवन में माया मिले जन जन की।।

अपणा मतलब खातिर करतो बातां अगन पवन की ।
बेमतलब सूं बात करे न सूणें ना अंतर मन की   ।।

अति चुपड़ी की चाहत में चाकरी करे सबरन की ।
उलटा सुलट काम करे फेरू मार पड़े जबरन की।।

धोळा केश गात अब ढीला चाहत छोड़दे तन की ।
रामदयाल बुढ़ापो नीड़े राह पकड़ संतन की  ।।
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