लक्ष्मीनारायण रंगा री कवितावां

रात
दिन री
पोथी पर
चढ़ियो
काळो कवर
***

जनता री आवाज
चौखट कसियै
काच लारै
भिणभिणावती
छटपटावती
माखी
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साच
अमावस
रो
चांद
***

भौ
संचानणै
डर जाऊं
खुद री
छिंया सूं
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संस्कृति
बिसरा रैयी
हथेळ्यां
मैंदी रो
रचाव
***

पतियारो
नीं रैयो
पतियारो
डावी आंख नै
जीवणी पर
***

आतंक
खुद रा हाथ भी
डरै
आपस में मिलता
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राष्ट्रीय पर्व
कलैण्डर
छपियोड़ा
लाला चौखाना
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चेतना
राख-धुंवै
घिरी
चिणगारी
***

पर्यावरण रा दूहा
प्रदूशण नै रोकणो, सै सूं पैलो काम।
जे काबू ओ नीं हुयो, बचा नीं सके राम।।

रंग-बिरंगो जैरतो, रच रैयो पोलीथीन।
फैषन, सुविधा कारणै, जीवण मौत अधीन ।।

नई है सुद्ध खावणो, नीं है निरमल नीर।
आभै में विस घुल रयो, हवा जैर रा तीर।।

दिवलो एक बाट रो, जल सी आखी रात।
दियो जी चार बाट रो, बुझती आधी रात।।

इण धरा री सुदंरता, रंग-रूप-रस पाण।
जे प्रकशित मिटती गई, जगती हुसी मसाण।।

धरती सै री मात है, आभो है जी तात।
मा- जाया सा बिरछ है, मत कर इण सूं घात।

धुंआ पी-पी धुंआ हुया, तन धुंएं री लकीर ।
तन-मन धन धुंआ लगा, हुयग्यो फकीर ।।

घायल धरा टसक रयी, हुयो गगन बीमार,
सागर रो दम धुट रयो, नदियां हाहाकार

सिवजी दाई जैर पी, इमरत बाँटे रूख।
कामधेनु अे कलपतरू, मत काटो थे रूख।।

जांभा जी सूं सीख लो, खेजडली री आण।
हरा रूंख जे काट सो, हुय सी देस मसाण।।

धरती मा रो दूध पी, बधै ए हरिया रूंख।
मा-जाया नै बाढ थे, बालो मा री कूख।।

इकीसवीं मे रैवणिया, सुणो सदी रो ग्यान।
आज लगाओं बन हरा, भविय मिलै बरदान।।

गगन-पवन, जल अर धरा, बणिया जैरी दंस।
मिनख जमीं जलमा रया, धश्तराश्ट्री बंस।।

जठै-जठै आदम गयो, मैल बिखरी जाण।
गंग, हिमालो, चांद ई, मैला मिनखा पाण।।

नीं मेला, ना मगरिया, नई तीज-त्योहार।
सावण नीं, फागण नई, किंया करै सिणगार।।

भोर कुंकमिया नई, केसरिया नीं सांझ।
मोती सा दिनडा कठै, नीं चांदणिया रात

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