अर्जुनदेव चारण री कवितावां

मांगत
औजार मत दै
वे नीं खोलै मन रा भेद
हथियार मत दै
नीं जांणै जोड़ण री अटकळ ।

खुद नै देखूं
जीवूं
समझूं
रीस-हार रा उछब मनावूं
हेत-प्रीत में म्हैं गम जावूं
मिनखीचारै नै बिड़दावूं
एक कवि दै
मिनख छवि दे ।
***

पाखी
सावचेत हौ चुग्गौ चुगजै
दांणां रै पेटै
मत लीजै पींजरौ
अडांणै मत राखजै
गाढ करार
आभै रौ छळ
पांखा कूंतजै
जीव-जूंण रौ अमर भरोसौ
सब नै दीजै
उडतौ रैइजै ।
***

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