कन्हैयालाल भाटी री कवितावां

कन्हैयालाल भाटी वर्षों से अनुवाक और मौलिक रचनाकार के रूप में सक्रिय हैं। हिंदी, राजस्थानी और गुजराती में परस्पर अनुवाद के माध्यम से जहां आपने विभिन्न रचनाकारों के बीच सम्मान प्राप्त किया है वहीं मौलिक लेखन के रूप में हिंदी और राजस्थानी भाषा में लिखी कहानियां-कविताएं भी पर्याप्त चर्चा में रही हैं। देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में वर्षों से निरतंर रचनाएं और अनुवाद प्रकाशित, अनुवाद की अनेक पुस्तकें प्रकाशित। कई मान-सम्मान और पुरस्कार प्राप्त।
स्थाई संपर्क: कन्हैया लाल भाटी
कुनी निवास, छिम्पों का मोहल्लागंगाशहर रोड, बीकानेर 
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आभो
ओ आभो
थे जाणो जित्तो
सूनो नीं है,
ओ तो समदर है-
ऊंधो पळटिज्योड़ो
जिण में तिरै
ठाह नीं किण री
बादळां नांव सूं नावां।
***

सूनयाड़
ओ सूनयाड़ म्हारै आंगणै
कठै सूं बापरियो
म्हैं अणमणो होय’र
आज माथो टेकूं
किण रै खवै
कठै है ऐड़ो कोई बेली-संगी
मांय सूं टूट्‌यां पछै
कदै-कदास हळको हुवण खातर
सांम्ही जाय’र काच रै
खुद सूं खुद बाथेड़ा कर’र
***

रेत
आखी रात
बरसतो रैयो आभौ
आखी रात
घुळती रैयी रेत।

आखी रात
पचतो रैयो हाळी
आखी रात
महकती रैयी रेत।

आखी रात
हाळी बीजतो रैयो बीज
आखी रात
उथळ-पुथळ मचावती रैयी रेत।

परभातियै तारै सूं
थोड़ो’क सांत हुयो आभो
परभातियै तारै सूं पैली
सुपनो देखती रैयी रात।

भखावटै-भखावटै
आय उमट्‌यो कागलां रो टोळो।
बैवती रैयी रेत
रेत अर पाणी रै साथै बैयग्या सगळा।
***

म्हैं रेत रो पंखेरू
नीं जाणै क्यूं
आज लखावै ओ जग
म्हनै छोड़’र एकलो
सूयग्यो हुवै
गैरी नींद में।
होळै-होळै चालती पून
म्हारै काणै मन में लखावै
जाणै उजाड़ जंगळ में
किणी मिंदर री फुरकती हुवै-
धजा !
राजकंवरो रो नौलखो
झपटो मार’र लेयगी चिलख
चिलख जिकी थोड़ी’क ताळ पैली
फुरूकै री जंगळ मांय
किणी री धजा दांई
राजकुंवरी री आंख्यां मांय
उपज्यो मून
चणचक खिंडगी कहूंक
एक-एक कर’र झड़ग्यो
सगळो जंगळ
अर बणग्यो मरुथळ।
सूनयाड़ अर मौत बिचाळै
कित्तो’क आंतरो
छटपटीजूं एकलो बण’र
म्हें रेत रो पंखेरू।
***

उडीक
ओ म्हारा बेली
थूं एक दिन चाणचकै
इण घोर रिंधरोही मांय
म्हारो हाथ छोड़ा’र
ठाह नीं कठै जाय’र लुकग्यो
सोच्यो तो म्हैं हो
पण थूं म्हारो ई उस्ताद निकळ्‌यो
म्हैं गुमग्यो म्हारै सूं का थारै सूं ।
म्हैं थनै हेलो पाड्‌तो
ओ म्हारा बेली....!
पड़ूतर में....
सूनी गूंग कटार ज्यूं
घुसगी म्हारै काळजै मांय
म्हैं हाल तांई अठै’ई बैठो हूं
थनै उडीकतो !
होळै-होळै आ रिंधरोही बदळती जाय रैयी है
सूख रैया है ऐ सगळा रूंख अर तळाव
छानो पड़ग्तो है पंखेरूवां रो हाको
हेताळुआं री रगां मांय थमग्यो है लोही
स्सै जणा चितबांगा हुयग्या
घर रै आगै कळलाटियो मचग्यो
थारै टाबरां अर बेलियां री आंख्यां सूं
आंसू थम कोनी रैया है
बां नै धीजो बधावां पण
अबै भरोसो नीं रह्‌यो म्हारां पर
म्हैं इण चितराम ने देख’र
साव सूनो हुयग्यो
अर म्हनै लखायो कै
ई रिंधरोही री हरियाळी खत्म होग्यी है
भींत्यां बण’र ऊभा है सगळा मारग
म्हनै होळै होळै घेर रह्‌या है।
लोही मांत बैवण लागग्यो है इकलापो
सांस में दावानळ री गंध घुळगी है
बखत थमग्यो है
रात अर दिन एकसा हुयग्या है
रोसणी अर अंधारो एक हुयग्यो है।
***
श्री कन्हैयालाल भाटी 















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