ओम पुरोहित "कागद" री कवितावां

ओम पुरोहित "कागद"
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 भोत अंधारो है


होया करै जेड़ो
है दिन

चोगड़दै पण भंवै

... साव अंधारो
सुरजी नै चिडावंतो !


कुण देखै सूई

जठै लुकग्या हाथ

दिखै ई नीं

खुद रै पगां रो कादो

भोत अंधारो है

थकां सुरजी !


है तो सरी सुरजी

आभै में पकायत

है कठै पण ठाह नीं

फिरग्या आडा

जळबायरा बादळिया !



इयां तो
ढबै नीं सुरजी

निकळसी एक दिन

बादळियां नै फटकार

पळपळावंतो

आभै रै सूंवै बिचाळै !
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