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शंकरसिंह राजपुरोहित री कवितावां

फोग रो गुरुमंतर
लूआं रा लपरका
अर
आंधी रा झपरकां सूं आयगी
फोग रै मूंडै फेफी,
फेरूं ई ऊभो है थिर
मरुधरा माथै
सींव रै रुखाळै सो अड़ीजंत।

तिरकाळ तावड़ै सूं
बुझावै आपरी तिरस
लीलीछम कूंपळा बण जावै
किणी ऊंट री जुगाळी
अर बीज बधावै-
रायतै रौ स्वाद।

मन में कठै है खोट ?
सींव रा रुखाळा ई लेवै
जिणरी ओट।

जोग लियोड़ो सो फोग
दुनिया नैं देवै
गिरस्थी चलावण रो गुरुमंतर
अर
संतां नैं सीख।
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खेजड़ी री ख्यात
धोरा-धरती री धणियाणी
कै करसै री कांमण ?
वित्त-मवेषियां री मालकण मानूं
या मिनख रै थरप्योड़ा
थानां-भगवानां री छिंयां ?

पण कोनीं थूं पूगळ री मूमल
ना रूप री रंभा पदमण
किंया कैऊं रूठी-राणी ?
थूं तो है--
इमरती देवी रो इमरत,
झांसी री राणी ज्यूं
इण ऊबड़-खाबड़ आंगणै
ठौड़-ठौड़ ऊभी है थूं।

थारा खोखा बाजै--
जेठ री जळेबी,
ऊंट-बकरियां अर भेडां री
भूख मिटावै थारा लूंग,
मरुधरा रै मिनख री कल्पना रौ
साकार रूंख है थूं,
थारी छिदी-माड़ी छिंया में बैठ
चींतै बो--
सगळां रै सुख री कामना।
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