हेली-1
हेली जलम्यो है बो मरसी, ईं में बोल राम के करसी।
मंदिर धोक’र चाए मसजिद, गुरुद्वाराँ अरदास कर्याँ नित।
काम न आणी कोई भी बिध, तूँ जितणी भी करसी।
हेली! जलम्यो है वो मरसी, जग में जीव जळम निज पाताँ।
लेखो लेती हाथूँ-हाथाँ, साँस जिता घालै बेमाता।
उतणा लेणा पड़सी, हेली! जळम्यो है बो मरसी।
क्यूँ हो’री है करड़ी-काठी, काळचक्र गति जाय न डाटी।
सब नैं हीं मिलणो है माटी, घींस्यो हो या घड़सी।
हेली! जळम्यो है बो मरसी, होणी कदै टळै नीं टाळी।
रीत सदाँ स्यूँ आई चाली, पल्लव नुवाँ उगंताँ डाळी।
पात पुराणाँ झड़सी, हेली! जळम्यो है बो मरसी।
***
हेली-2
न्यारा-न्यारा चरित जगत में झालो दे’र बुलावै है ।
सोच समझ की बोल म्हारी हेली! तूँ कांई बणणे चावै है ।।
कुबदगारी घणी’रै कतरणी, कतर-कतर टुकड़ा करदे
सुगणी सूई टुकड़ो-टुकड़ो जोड़-जोड़ सिलकी धरदे
एक करै दौ टूक हमेसां, दूजी मेळ मिलावै है।
सोच समझ की बोल म्हारी हेली! तूँ कांई बणणे चावै है ।।
सदां बिखेरै नाज दळंती, चलती चक्की बोछरड़ी
चूल समावै चून समूचो मांड्यां छाती पड़ी रै पड़ी
एक दुतकारै दूर भगावै, दूजी हिए लगावै है।
सोच समझ की बोल म्हारी हेली! तूँ कांई बणणे चावै है ।।
लौह लकड़ी स्यूं दोनूं बण्योड़ा, इक बंदूख’र इक हळियो
दोन्यां नै हीं हरख मानखो, हांड रयो रै कांधे धरियो
एक बहावै खून चलै जद, दूजो अन्न निपजावै है।
सोच समझ की बोल म्हारी हेली! तूँ कांई बणणे चावै है ।।
त्रेता जुग में राम और रावण, दोनूं हीं हा रणबंका
एक अमर होग्यो दूजै की लुंटगी सोने की लंका
कह कवि कवि ताऊ मिनख सदां हीं करणी को फळ पावै है।
सोच समझ की बोल म्हारी हेली! तूँ कांई बणणे चावै है ।।
***
हेली! हेलो पड़याँ
खिलती कळियाँ गळियाँ सौरम, फ़ूट्याँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
मत आँचल री आग अँवेरे
ढलसी जोबन देर-सबेरै
झूठी उलट सुमरणी फ़ेरै
पकतो आम डाळ एक दिन, टूटयाँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
कंचन काया का कुचमादण!
क्युँ हो री है यूँ उनमादन
हठ मत पकड़ हठीली बादण
लख जतन कर एक दिन लंका लुट्याँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
ढाळ जठीणै ढळसी पांणी
आकळ बाकळ मत हो स्याणी!
डाट्यो भँवर डटै कद ताणी
फ़ूल्योड़ा फ़ूलड़ा जग ‘ताऊ’ चूंटयाँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
शब्दार्थ
हेली=हवेली=काया, आत्मा का घर
हेलो=आवाज देना, जब बुलावा आएगा
छूट्याँ सरसी ए=छोड़ना ही पड़ेगा, बिना छोड़े नही बनेगा
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
मत आँचल री आग अँवेरे
ढलसी जोबन देर-सबेरै
झूठी उलट सुमरणी फ़ेरै
पकतो आम डाळ एक दिन, टूटयाँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
कंचन काया का कुचमादण!
क्युँ हो री है यूँ उनमादन
हठ मत पकड़ हठीली बादण
लख जतन कर एक दिन लंका लुट्याँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
ढाळ जठीणै ढळसी पांणी
आकळ बाकळ मत हो स्याणी!
डाट्यो भँवर डटै कद ताणी
फ़ूल्योड़ा फ़ूलड़ा जग ‘ताऊ’ चूंटयाँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
शब्दार्थ
हेली=हवेली=काया, आत्मा का घर
हेलो=आवाज देना, जब बुलावा आएगा
छूट्याँ सरसी ए=छोड़ना ही पड़ेगा, बिना छोड़े नही बनेगा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें