वासु आचार्य री कवितावां

फरक थारै अर म्हारै बिचाळै
सुख अर दुख
आप आपरो हुवै
म्हारो दुख
तनै अकैकारो लाग सकै
अर म्हारै सुख माथै
तूं दांत काढ सकै

तनै जंगळ में
खेजड़ी माथै बैठी
एकल एकली चिड़कली
कोई खास बात नीं लखावै
पण म्हारै काळजै
गैरी उदासी भर जावै
तिरण लागै-
म्हारी आंख्यां में
कच्चा टापरा
उदास झूंपड़ियां
जठै लगोलग
नीं तो लालटेन सूं
कोई धुंवो उठै
अर नीं ही ससोयां सूं
ईं में म्हारो
कीं दोस नीं है
म्हारा भायला
कै थनै खुलै आभै में
झपटता केई बाज
अर बचणां चावता
केई कबूतरां रै
जीवण अर मरण रै
खूनी खेल में
बाज रो झपटणो
घणो सुहावै

अर म्हैं डरूफरू हुयै
कबूतर री पीड़ा सूं
सूकण लागूं मांय रो मांय

म्हैं जठै खड़ियो हूं
बठै री जमीन रो
आपरो न्यारो सोच है
अर न्यारी निजर

म्हैं कैयो नीं
सुख अर दुख
आप आपरो हुवै
***

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